डीएमके सांसद दयानिधि मारन के शर्मनाक बयान पर बिहार के नेता उबल रहे हैं लेकिन आम बिहारी शांत है। मारन के विरोध में सामाजिक या युवा संगठनों में कोई गुस्सा नहीं है। बिहार खामोश है। जिन नेताओं के चलते बिहारियों को गाली सुननी पड़ती है, सिर्फ वे ही शोर मचा रहे हैं। आम बिहारी इसे अपनी नियति मान बैठा है। कभी महाराष्ट्र में शिवसेना और नव निर्माण सेना, तो कभी दिल्लीवाले, तो कभी तमिलनाडु के नेता, इनके अपमानजनक बोल, हिकारत भरी निगाहें और व्यवहार अब हमारे लिए नया नहीं है। बिहारी आहत होता है, लेकिन उबलता नहीं। वह इसका प्रतिकार अपनी प्रतिभा दिखा कर करता है।
हां, ऐसे मामले में बिहारी राजनेताओं के बयान, पार्टी और चेहरा देखकर बदलते रहते हैं। क्योंकि उन्हें बिहारी अस्मिता नहीं, अपनी राजनीति प्यारी है। याद आते हैं वो दिन जब शिवसेना एनडीए यानी भाजपा के गठबंधन का हिस्सा थी। उस समय मुंबई में बार-बार बिहारियों के साथ दुर्व्यवहार किये जाते थे। उनके ऑटो, खोमचे उलट दिए जाते थे। नौकरियों के लिए परीक्षा देने गए बच्चों को दौड़ा -दौड़ा कर पीटा जाता था, तब भाजपा नेताओं की क्या प्रतिक्रिया होती थी ?
आज जैसे इंडिया गठबंधन के नेता मारन प्रकरण पर बच -बचा कर, हकला -हकला कर बोल रहे हैं , तब भाजपा नेताओं की यही स्थिति होती थी। उनके मुंह से बोल नहीं फूटते थे। आज भले ही वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इंडिया गठबंधन से अलग होने की चुनौती दे रहे हों।
उस समय राजद और एनडीए विरोधी पार्टियां जैसे कूद -कूद कर भाजपा और शिवसेना को कोसते नहीं थकती थीं, उसी तर्ज पर आज भाजपा और एनडीए के नेता कर रहे हैं। कोई अंतर है ? सिर्फ विरोध करने वाले चेहरे बदलते रहते हैं लेकिन बिहार और बिहारियों की स्थिति नहीं बदलती ! क्यों ?
राजनीति का यह खेल आम बिहारी बखूबी समझता है। इसलिए वह तमाशबीन बना रहता है। वह जानता है कि अंदरखाने सब एक हैं। उन्हें सिर्फ अपनी राजनीति की चिंता है, कुर्सी की चिंता है, बिहार के विकास और बिहारी की चिंता सबसे निचले पायदान पर है।
हद तो बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कर दी। उन्होंने डीएमके पार्टी को सामाजिक न्याय की पार्टी बताते हुए बहुत मीठे स्वर में, मारन का नाम लिए बिना निंदा की। अब उनको कौन समझाए कि सामाजिक न्याय का मतलब किसी को नीचा दिखाना, उसे अपमानित करना या गाली देना नहीं होता ? सामाजिक न्याय का मतलब हैसियत देखे बगैर सबके साथ समान व्यवहार और समान अवसर देना है।
मगर यह भी सच है कि बिहार में ‘भूरा बाल साफ़ करो’ का नारा भी सामाजिक न्याय का नारा माना गया था। ऐसी पार्टियां और ऐसा नारा लगानेवाले किसका भला करेंगे ? उसी तर्ज पर तो मारन भी बोल रहे हैं तो उसकी निंदा कैसे करेंगे ?
बिहार की स्थिति को देखकर मुज़फ़्फ़र रज़्मी का एक प्रसिद्ध शेर कौंध जाता है –
‘ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने /
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई। ‘
रज्मी साहब उसी यूपी के थे जिस यूपी के लोगों को आज डीएमके के सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री अपमानित कर रहे हैं। बिहार के लोग अगर मजदूरी करने के लिए भी बाहर जाने को विवश हैं तो इसके लिए बिहार के अदूरदर्शी और सत्ता सुख भोगने की लालसा रखने वाले राजनेता जिम्मेवार हैं।
जरा नजर घुमा कर देखिये -बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के बाद बिहार में कितने बड़े उद्योग लगे ? निराशा हाथ लगेगी। हमारी सरकारों ने, हमारे मुख्यमंत्रियों ने बिहार को रोजगार युक्त प्रदेश बनाने के लिए क्या किया ? इस स्थिति के लिए हम बिहारी भी कम जिम्मेदार नहीं है। हमने वैसे ही नेताओं को अपना रहनुमा चुना। तो भुगतेगा कौन ?
अच्छी पढ़ाई के लिए बिहार से बाहर जाओ
अच्छी नौकरी के लिए बाहर जाओ
अच्छे इलाज के लिए बाहर जाओ
अब मजदूरी के लिए भी बाहर जाओ।
यही है हमारा बिहार। यह गंभीर चिंतन का समय है। नहीं सुधरे तो आनेवाली पीढ़िया भी गाली सुनती रहेंगी और पिटती रहेंगी।
(इस आलेख में प्रकट किए गए विचार प्रवीण बागी के हैं। बागी वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान समेत ईटीवी, कशिश, ईटीवी भारत जैसे संस्थानों में काम कर चुके हैं।)